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भीमा कोरेगांव: इतिहास, संघर्ष और न्याय का प्रतीक

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भीमा कोरेगांव का नाम भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। यह केवल एक ऐतिहासिक युद्ध का स्थल नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्ष का प्रतीक भी बन चुका है। 1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा नदी के किनारे लड़ा गया यह युद्ध, आज दलित अस्मिता और समानता की दिशा में किए गए संघर्षों का प्रतीक बन चुका है। हर साल 1 जनवरी को हजारों लोग विजय स्तंभ पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए यहां एकत्र होते हैं। यह न केवल इतिहास को याद करने का अवसर है, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय के लिए जागरूकता का प्रतीक भी है।

1818 की ऐतिहासिक लड़ाई और विजय

1 जनवरी 1818 को भीमा कोरेगांव गांव में एक ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया। यह तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1818) का हिस्सा था। मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को चुनौती दी थी और पुणे पर आक्रमण की योजना बनाई। पेशवा की सेना की संख्या लगभग 28,000 थी, जबकि ब्रिटिश सेना के पास केवल 500 सैनिक थे। ब्रिटिश सेना की इस छोटी टुकड़ी में महार रेजिमेंट के सैनिक प्रमुख थे।

कैप्टन फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में इस टुकड़ी ने 12 घंटे तक बहादुरी से संघर्ष किया और पेशवा की विशाल सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस जीत ने मराठा साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को तेज किया। ब्रिटिश सरकार ने इस विजय के सम्मान में भीमा कोरेगांव में विजय स्तंभ (जय स्तंभ) का निर्माण कराया। यह स्तंभ आज भी महार सैनिकों की बहादुरी और उनके संघर्ष का प्रतीक है।

महार रेजिमेंट और दलित अस्मिता

इस युद्ध में महार रेजिमेंट के सैनिकों ने अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया। उनके इस साहस को दलित समुदाय ने अपने सम्मान और अस्मिता की विजय के रूप में देखा। महार सैनिक उस समय की ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े हुए, जो दलितों को सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न का शिकार बनाती थी।

विजय स्तंभ दलित समुदाय के लिए समानता और अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक बन गया। हर साल यहां आने वाले लोग इसे एक प्रेरणास्रोत मानते हैं। यह स्थल यह संदेश देता है कि असमानता और अन्याय के खिलाफ लड़ाई निरंतर जारी रहनी चाहिए।

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भीमा कोरेगांव की प्रासंगिकता और वर्तमान स्थिति

भीमा कोरेगांव का महत्व समय के साथ बढ़ता गया। यह स्थल सामाजिक न्याय और दलित अस्मिता के संघर्ष का केंद्र बन चुका है। हालांकि, 2018 में 200वीं वर्षगांठ के मौके पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान हिंसा भड़क उठी। इस घटना में एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई घायल हुए।

यह घटना भीमा कोरेगांव के प्रतीकात्मक महत्व को और विवादास्पद बना गई। विरोध प्रदर्शनों और हिंसा ने यह दिखाया कि समाज में जातीय विभाजन और असमानता की समस्याएं अब भी बरकरार हैं। इसके बावजूद, यह स्थल दलित अस्मिता और उनके अधिकारों के संघर्ष का प्रमुख प्रतीक बना हुआ है।

राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण

भीमा कोरेगांव की लड़ाई को लेकर भिन्न दृष्टिकोण हैं। कुछ इसे दलित समुदाय के साहस और समानता के संघर्ष का प्रतीक मानते हैं, जबकि कुछ इसे ब्रिटिश उपनिवेशवाद का हिस्सा मानते हैं। यह ऐतिहासिक घटना आज भी भारतीय समाज और राजनीति में गहरी छाप छोड़ती है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों की रोशनी में, यह घटना समानता और न्याय की दिशा में किए गए संघर्षों का प्रतीक है। अंबेडकर ने कहा था, “समानता केवल अधिकार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है।” यह दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि इतिहास केवल स्मृति नहीं, बल्कि समाज में बदलाव लाने का एक माध्यम है।

निष्कर्ष: प्रेरणा का प्रतीक

भीमा कोरेगांव की लड़ाई भारतीय इतिहास में केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि सामाजिक समानता और अस्मिता के संघर्ष की कहानी है। यह स्थल उन सभी के लिए प्रेरणा है जो अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होते हैं।

भीमा कोरेगांव का यह संघर्ष न केवल अतीत का स्मरण है, बल्कि वर्तमान और भविष्य में समानता और न्याय के लिए किए जाने वाले प्रयासों की ओर भी संकेत करता है। यह हमें सिखाता है कि साहस और संघर्ष के माध्यम से असमानता और अन्याय को हराया जा सकता है।

वाई. के. चौधरी

दैनिक “छठी आंख” समाचार के लिए विशेष रिपोर्ट

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