हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन ने देश में न्यायिक नियुक्तियों और राजनीति के आपसी संबंधों पर तीखी टिप्पणी की। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस आपराधिक साजिश मामले में सभी अभियुक्तों को बरी करने वाले जज के उत्तर प्रदेश में उप-लोकायुक्त के रूप में नियुक्त किए जाने पर सवाल उठाए। नरीमन ने इसे “देश की स्थिति” का चिंताजनक उदाहरण बताया।
बाबरी मस्जिद मामला: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
बाबरी मस्जिद विध्वंस मामला 6 दिसंबर 1992 को हुए एक ऐतिहासिक और विवादास्पद घटना से जुड़ा है। इस घटना के बाद देशभर में सांप्रदायिक दंगे भड़के थे और सैकड़ों लोगों की जान गई थी। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कई वरिष्ठ नेताओं समेत कई लोगों पर आपराधिक साजिश का आरोप लगाया गया।
28 साल बाद, 30 सितंबर 2020 को सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि विध्वंस पूर्व नियोजित नहीं था और कोई ठोस सबूत नहीं मिला। इस फैसले पर कई कानूनी विशेषज्ञों, समाजशास्त्रियों और धार्मिक संगठनों ने सवाल उठाए।
अदालत के फैसले के बाद नियुक्ति पर विवाद
बाबरी मस्जिद मामले में विशेष अदालत के फैसले के बाद न्यायाधीश एस.के. यादव को उत्तर प्रदेश सरकार ने उप-लोकायुक्त के पद पर नियुक्त किया। इस पर न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़ा करता है।
नरीमन का कहना है, “ऐसी नियुक्तियां न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर करती हैं। जब एक जज, जिसने विवादास्पद फैसले दिए हों, सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राजनीतिक नियुक्तियां स्वीकार करता है, तो यह ‘संस्थानिक निष्पक्षता’ के खिलाफ है।”
भारत के संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष रखने की बात कही गई है। लेकिन न्यायपालिका और राजनीति के आपसी संबंधों पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। न्यायमूर्ति नरीमन की टिप्पणी ने एक बार फिर इस बहस को ताजा कर दिया है।
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी या राजनीतिक पद स्वीकार करने वाले जजों की नियुक्तियों से न्यायपालिका की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डालता है, बल्कि जनता के बीच संस्थान पर अविश्वास पैदा करता है।
न्यायमूर्ति नरीमन का सुझाव
न्यायमूर्ति नरीमन ने सुझाव दिया कि सेवानिवृत्त जजों को ऐसी नियुक्तियां स्वीकार करने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा, “यह समय है कि न्यायपालिका अपनी गरिमा बनाए रखने के लिए सख्त कदम उठाए। न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता का पालन करना चाहिए, ताकि जनता का विश्वास कायम रहे।”
समाज में प्रतिक्रिया
न्यायमूर्ति नरीमन के बयान के बाद सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर बहस तेज हो गई है। कई लोगों ने इस बयान का समर्थन किया, जबकि कुछ ने इसे राजनीतिक पूर्वाग्रह से प्रेरित बताया।
कानूनी विशेषज्ञों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि ऐसी नियुक्तियां देश में “हितों का टकराव” (Conflict of Interest) की स्थिति पैदा करती हैं। यह न केवल संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव को भी कमजोर करती है।
क्या कहती है जनता?
आम जनता इस मुद्दे पर बंटी हुई नजर आती है। कुछ लोगों का मानना है कि जजों को सेवानिवृत्ति के बाद भी समाज की सेवा का अधिकार है, जबकि अन्य का मानना है कि इससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।
निष्कर्ष
न्यायपालिका लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ है, लेकिन इसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठना चिंताजनक है। न्यायमूर्ति नरीमन का बयान केवल एक व्यक्ति की राय नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक और लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थिति का प्रतिबिंब है।
आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सरकार और न्यायपालिका इस प्रकार के मुद्दों पर कोई ठोस कदम उठाएगी या यह बहस केवल बयानबाजी तक सीमित रह जाएगी।